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अथ पांचवां अध्याय श्रीमद् भगवद् गीता - अध्याय ५ - कर्म ... - श्रीमद भगवद गीता - KarmSanyasYog Bhagwat Geeta Chapter 5


 

अथ पांचवां अध्याय श्रीमद् भगवद् गीता


अर्जुन ने कहा - हे श्रीकृष्ण! आप कर्मो के त्याग का भी उपदेश देते हो और फिर कर्म करने के लिए भी कहते हो, अब इन दोनेां में जो श्रेष्ठ हो उस एक बात को निश्चय करके मुझ से कहो। यह सुन श्रीकृष्ण जी बोले- हे अर्जुन! कर्म का त्याग और कर्म का पालन ये दोनों ही कल्याण करने वाले है। इन दोनेां में कर्म संन्यास से कर्म श्रेष्ठ है अर्थात् कर्म करते-करते चित के शुद्ध होने से संन्यास होता है। हे महाबाहो! जो प्राणी ज्ञान की ऐसी बात को समझने वाला संन्यासी है, जो न तो किसी के द्धेष करता है और न किसी बात की इच्छा करता है ऐसे पुरूष ही बन्धन से छूट जाते है। हे अर्जुन! अज्ञानी ही सांख्य और योग को अलग-अलग कहते है पडिंत कभी ऐसा नही करते। जो इन दोनों मे से एक मे भी अच्छी तरह स्थिर हो जाता है वह दोनो का फल पाता है। हे अर्जुन! ज्ञान से जो स्थान मिलता है वही कर्म योग से भी मिलता है।


       इससे जो ज्ञान औ कर्म को एक ही देखते है वही अच्छी तरह देखने वाले विद्धान् है। हे महाबाहो अर्जुन! बिना कर्मयोग संन्यास को पाना कठिन है और कर्म के करने वाले मुनिजन कर्म करने से शुद्ध चित द्धारा शीघ्र ही ब्रहा्र को प्राप्त हो जाते है। हे अर्जुन! जो कर्मयोग से युक्त है अथवा कामना त्याग करके काम करते है, जिनका चित शुद्ध है जिन्होने अपनी आत्मा और इन्द्रियां जीत ली है, और जो अपनी आत्मा को सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा से भिन्न नहीं मानते है तो भी उन में लिप्त नही होते है। हे अर्जुन! कर्म से मुक्त तत्वज्ञानी लोग देखते है, सुनते है, स्पर्श करते है, सूंघते है, चलते हैं, सोते है, श्वास लेते है तो भी यही जानते है कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं। वे बोलते हैं, छोड़ते हैं, ग्रहण करते है, आंख खोलते है, बंद करते है परन्तु यही समझते हैं कि कुछ नहीं करते, इन्द्रियां ही अपने-अपने विषय को बरतती है। जो मनुष्य कर्म करते है और उन कर्मो को ब्रहा में अर्पण कर फल की इच्छा को छोड़ देते है उन पुरूषों से पाप ऐसे लिप्त नहीं होता जैसे कमल पत्रों पर जल नही रहता है। हे अर्जुन! शरीर, मन, बु़ि़द्ध और केवल इन्द्रियों से योगीजन फल की कामनाओं को छोड़ कर कर्म करते है। जो कर्म करना चित शुद्धि के लिए है। जो फल की कामना को छोड़ कर्म करने में तत्पर रहता है वह ईश्वर में निष्ठारूप शान्ति  पाता है और जो ईश्वर से विमुख है और फल की कामना में मन लगा कर काम करता है वही कर्म से बंधा हुआ है। जो जितेन्द्रिय पुरूष इन नौ इन्द्रियों से युक्त देह में मन से सम्पूर्ण काम को त्याग कर सुखपूर्वक रहते है, वे अहंकार के न होने से स्वयं कोई काम नहीं करते है और ममता के अभाव से भी किसी से और कुछ नहीं कराते है। परमात्मा इस जीव के न कर्तापन, न कर्मफल औी न कर्मयो के संयोग को बनाता है। इन सब काम की प्रवृति कराने वाली प्रकृति है, अर्थात् जीव अपने जन्म के कर्मानुआर कर्म करने लगता है। हे अर्जुन! ईश्वर किसी के पुण्य और पाप को ग्रहण नहीं करता है। इस जीव का ज्ञान अज्ञान ने ढांक रखा है। इसी से अज्ञानी जीव मोह में फंस कर ईश्वर में विषय द्ष्टि रखते है। हे अर्जुन! जिनका यह विषम अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट हो गया है उनको वह सुर्य के समान प्रकाश करता है और अंधकार रूप सब दुःख-सुख को मिला देता है। उस परमात्मा ही में जिनकी बुद्धि है और उसी मे जिनकी निष्ठा है और उसी में जो तत्पर है उसी परमात्मा की कृपा से ज्ञान द्धारा जिनके पाप नष्ट हो गये है वे इस संसार में फिर जन्म नहीं लेते है। जो विद्धान् हैं वे विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राहा्रण में, गौ, हाथी आदि में, कुता और चाण्डाल में, आत्मा को समान दृष्टि से देखते है अर्थात् अपने और उनमें कोई भेद नहीं मानते है।


          जिनका मन समानता में स्थिर है अर्थात् जो सबको समान दृष्टि से देखते है उन्होने संसार को जीत लिया है, क्योंकि ब्रहा्र दोषरहित और समान है। इससे ऐसे जन इसमें स्थिर हो जाते है। हे अर्जुन! जो भली वस्तु पाकर प्रसन्न नहीं होते है और बुरी वस्तु को पाकर शोक नही करते है ऐसी स्थिर बुद्धि वाले ज्ञानी ब्रहादेवता ब्रहा में स्थिर रहते है और बाह्रा इन्द्रियों के रूपरसादि विषय में आसक्त नहीं है वे आत्मा परम-शांति रूप सुख का अनुभव करते है और इस शांति से वे ब्रहायोग में अपनी आत्मा लगाकर समाधि द्धारा अक्षय सुख का अनुभव करते है। हे अर्जुन! जो रूपरसादि इन्द्रियों के भोग है वे दुःख के मूल कारण है ये भोग पैदा होते है और मिट जाते है। इससे विवेकी जन विषयांे में रमण नहीं करते जो मनुष्य जीते जी या जब तक शरीर में शक्ति रहे तब तक काम क्रोध के वेगों को जीत लेता है वही इस संसार में योगी है और वही सुखी है, क्योंकि पुरूषार्थ घटने पर तो सभी के काम क्रोध घट जाते है।


        हे अर्जुन! जो अपनी आत्मा ही में सुख का अनुभव करता है और जो अपने अन्तः करण के आत्मा सबंधी ज्ञान से प्रकाशित है वही योगी ब्रहारूप होकर निर्वाण पद को प्राप्त हो जाता है। जिनका दो भाव नहीं है और अपनी आत्मा को अपने वश मे कर लिया है, जो प्राणीमात्र की भलाई चाहते है और जिस के सम्पुर्ण पाप क्षीण हो गये है, वही निर्वाण सुख में मग्न होते है। जो काम क्रोध से रहित हो गये है, संयमपूर्वक रहते है, जिन्होने अपना मन वशीभूत कर रखा है और जो आत्मतत्व को जानते है उनके सब ओर ब्रहा सुख वर्तमान रहता है। रूपरसादि इन्द्रियों के बाहा्र विषयों को बाहर करके और नेत्रों से भृकुटी का ध्यान कर प्राण और अपान वायु को समान रख कुम्भक प्राणायाम करे। भ्रूमध्य में दृष्टि रखना इसलिए कहा है कि बन्द करने से तो निद्रा का भय और खुले रहने से बाहरी विषयों पर मन दौड़ता है और वह दोनों वायु सम होकर नासिका में से संचार करते है वह प्राणी जिसने अपनी इन्द्रियां मन, बुद्धि को जीत लिया है सो मोक्ष ही का आश्रय लिये रहता है, जिनके इच्छा, डर क्रोध भी नहीं वह सदा जीव मुक्त है। सम्पूर्ण यज्ञ और तप का पालन करने वाला सब लोकों का ईश्वर, भूत प्राणियों का मित्र, मुझको जानते हैं, वह सुख पाते है।

इति श्री मद् भगवद् गीता सूपनिषत्सु ब्रहाविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्म संन्यास योगो नाम पंचमी अध्यायः।। 

प्रदीप‘ श्री मद् भगवद् गीता







 


 


अथ पांचवां अध्याय श्रीमद् भगवद् गीता - अध्याय ५ - कर्म ... - श्रीमद भगवद गीता - KarmSanyasYog Bhagwat Geeta Chapter 5 अथ पांचवां अध्याय श्रीमद् भगवद् गीता - अध्याय ५ - कर्म ... - श्रीमद भगवद गीता - KarmSanyasYog Bhagwat Geeta Chapter 5 Reviewed by Shiv Rana RCM on March 16, 2021 Rating: 5

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