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अथ नौवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार - The greatness of the ninth chapter of Srimad Bhagavad Gita भगवद गीता अध्याय 9 - भागवत गीता अध्याय 9 - तथा नौवें अध्याय का पाठ सुनने से प्रेत और पिशाचनी की मुक्ति


  The greatness of the ninth chapter of Srimad Bhagavad Gita

भगवद गीता अध्याय 9 - भागवत गीता अध्याय 9  - 
अथ नौवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता

श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार
तथा
नौवें अध्याय का पाठ सुनने से प्रेत और पिशाचनी की मुक्ति

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     श्री भगवान जी बोल - हे अर्जुन! तू मेरी निन्दा करने वाला नहीं है, इससे जो गुप्त से परमगुप्त ज्ञान है वह तुझे सुनाता हूं। इसे जानकर तू संसार में निर्लिप्त रहेगा। जो ज्ञान तुझे सुनाता हूं, वह सब विद्याओं का राजा है और सब से अधिक गुप्त रखने के योग्य अत्यन्त पवित्र है। जिसका जानना सुलभ है, वह वेदों का फल है। सुखपूर्वक साधन के योग्य है और नाम रहित है।


    हे परंतप! जो ऐसे ज्ञान को नहीं जानते सो प्राणी मुझ को प्राप्त नहीं होते और मरणशीज संसार में जन्मते रहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत मुझ में अव्यक्त रूप करके व्याप्त है। सब प्राणी मुझ में स्थित हैं और मैं उनमें स्थित नहीं हूं। ये सब प्राणी मुझ में स्थित नहीं हैं तो कदाचित तू यह कहें कि तुम पहले कह चुके हो कि सब प्राणी मुझ में स्थित हैं इसमें परस्पर विरोध है। हे अर्जुन! सो नहीं है। तू मेरे ऐश्वर्य सम्बन्धी योगबल को देख, प्राणियों का लालन-पालन करने वाली मेरी आत्मा प्राणियों का लालन-पालन  करती है, परन्तु उनमें स्थित नहीं है। यह मेरा योग बल है। निरन्तर आकाश में रहने वाला वायु बड़ा है और सब जगह विचरता रहता है परन्तु आकाश में लिप्त नहीं होता। ऐसे ही सब प्राणी मुझ में स्थित हैं परन्तु मैं किसी में लिप्त नहीं।

    हे अर्जुन! प्रलयकाल में सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और उनको मैं कल्प के आदि में फिर छोड़ देता हूं। मैं अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर अपने कारण पराधीन इस सम्पूर्ण प्राणी समूह को बार-बार बनाता हूं। हे धनंजय! मैं उस सृष्टि के रचना-कर्म में आसक्त हूं। हे कौन्तेय! मैं ही अध्यक्ष हूं। मेरी इस अध्यक्षता से ही प्रकृति चराचर प्राणीमात्र को बनाती है। इसी कारण इस संसार का परिवर्तन होता रहता है।

    हे अर्जुन! मूढ़ मनुष्य मेेरे सर्वभूत महेश्वर परमभाव को नहीं जानते हैं, इसी से जो मैंने यह मनुष्यरूप धारण कर रखा है उसकी अवज्ञा करते हैं। ये मूढ़ मनुष्य इसलिए मेरा अनादर करते हैं कि इनकी आशा फलवती नहीं है। वह जो कुछ भले कर्म दान पुण्य आदि करते हैं, सब निष्फल हैैं। सांसारिक दुर्व्यसनों से इनका चित विक्षिप्त रहता है और वे राक्षसी तथा आसुरी प्रकृति का आश्रय रखते हैं जोकि मोह का उत्पन्न करने वाली है। हे अर्जुन! दैवी प्रकृति का आश्रय रखने वाले महात्माजन तोे मुझे सब जीवों का आदिरूप, अविनाशी जानकर सब ओर से चिंता हटाकर दृढ़ निश्चय के मेरा ही भजन करते हैं। भक्तिपूर्वक मुझे नमस्कार करते हैं और रात-दिन मुझ में ध्यान लगा कर मेरी उपासना करते हैं। कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो एक भाव अभेद-बुद्धि से मेरी उपासना करते हैं और कितने ही दास्यभाव बुद्धि से मेरी उपासना करते हैं और कितने ही सब जीवों का आत्मस्वरूप् मुझे ब्रहास्वरूप समझ कर मेरी उपासना करते हैं।

    हे अर्जुन! मैं प्रकृति भी हूं, पितरों का सुधा भी हूं अनादि औषध भी हुं, मन्त्र हूं, होम की सामग्री हूं, हवनाग्नि हूं, आहुति हूं, इस सम्पूर्ण जगत् का पिता-माता हूं, धाता हूं, पिता हूं, पितामह हूं, जानने के योग्य हूं, पवित्र हूं, मैं ओंकार हूं और चारों वेद हूं। मैं इस सब जगत् की गति हूं, सब का पोषण करने वाला हूं, सबका स्वामी हूं। सम्पूर्ण कर्मो का साक्षी हूं, सबका निवास-स्थान हूं, सबकी शरण हूं, सबका हितकारी हूं, सबकी उत्पति हूं, सबका लय करने वाला हूं। बीज रूप हूं, अविनाशी हूं, सूर्य रूप से सबको तपाने वाला हूं, जल बरसाने वाला हूं, प्राणियों  का जीवन और मृत्यु हूं, सत असत् हुं।  


    ऋग यजुः साम वेदत्रयी को जानने वाले वेदोक्त यज्ञकर्म करके सोम रस का पानकर अपने पापों से छुटकर पवित्र स्वर्ग लोक में जाने की जो कामना करते हैं, वे पुण्यरूप इन्द्रलोक में पहुंच स्वर्ग में वास अथवा दिव्य भोगों  का भोग करते हैं। फिर अपने पुण्यक्षीण होने पर मनुष्य लोक में जन्म लेते हैं।  वेदोक्त यज्ञादि कर्मो के करने वाले अपनी कामना की सिद्धि के कारण कभी स्वर्ग में जाते हैं कभी संसार में आते हैं। इस प्रकार आवागमन में फंसे रहते हैं। जो अनन्यभक्त मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं उन नित्य योगियों की मैं इस संसार में धन जन पुत्र पौत्रादि देकर उनकी रक्षा करता हूं और फिर आवागमन से उन्हें छुड़ा देता हूं। 


    हे कौन्तेय! अन्य देवताओं के भक्तवर्ग जो उनमें श्रद्धा करके उनकी उपासना करते हैं, ये मेरी विधिहीन पूजा है। इससे वे भक्त मुक्ति को नहीं पाते हैं। मैं सब यज्ञों का भोग करने वाला और सब का प्रभु हूं। जो मुझको ऐसा प्रभु ईश्वर नहीं जानते हैं, वे आवागमन से नहीं छूटते हैं। देवताओं के पुजने वाले देवगति को प्राप्त होते है। पितरों के पूजक पितक लोक जाते हैं। भूतों के पूजने वाले भूतलोक जाते हैं और मुझको पूजने वाले मेरे परमानन्द स्वरूप अचल पद को पाते हैं। जो कोई भक्त पत्र पुष्प फल आदि भक्ति युक्त मेरे को निवेदन करता है, उसकी दी हुई वस्तु को मैं प्रसन्नता से अंगीकार करता हूं। 


    हे कौन्तेय! जो कुछ तुम करते हो, देते हो, तपस्या करते हो वह मुझ का अर्पण करो। ऐसा करने से कर्म बन्धन रूप शुभाशुभ फलों से बच जाओगे और संन्यास योग में युक्त होकर मुक्ति के सत मुझको अवश्य पाओगे। हे अर्जुन! मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान रूप हूं न कोई मेरा शत्रु है न कोई मेरा मित्र है, जो मुझको भक्तिपूर्वक भजता है वही मुझमें है और मैं उसमें हूं। यदि कोई अत्यन्त दुराचारी मनुष्य अन्य देवताओं की पूजा न करक मेरी पूजा करता है तो वह अनन्य भक्त शीघ्र ही दुराचारी से धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर शांत रहता है। हे पार्थ! कोई कैसा भी पापात्मा क्यों न हो, चाहे क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, यदि मेरा आश्रय ले तो उतम गति को प्राप्त होता है और फिर पुण्यात्मा ब्राहा्रण और भक्त राजर्षि इनका तो कहना ही क्या है। इसलिए हे अर्जुन! ‘ओंनमो भगवते वासुदेवाय‘ ऐसा मेरा भजन स्मरण कर। मेरा साथ ऐसा मिलेगा जैसा पानी के साथ पानी मिल जाता है। इसी प्रकार मेरे साथ अभेद हो,  ‘ओं नमों नारायण‘ यह कहो।    
 
इति श्री मद भगवद गीता सूपनिषत्सु ब्रहाविद्यांयोगशास्त्रे प्रकृतिभेदो नाम नवमो अध्यायः।।


नौवे अध्याय का माहात्म्य -   

श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य, 

नौवें अध्याय का पाठ सुनने से प्रेत और पिशाचनी की मुक्ति

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    एक समय लक्ष्मी ने पूछा - हे नारायण जी! गीता के नौवे अध्याय के माहात्म्य को कहो, हमारी सुनने की बड़ी इच्छा है। भगवान् ने कहा - हे लक्ष्मी! सुनो, दक्षिण देश में संशर्मा नाम का एक शूद्र रहता था। वह मांस मदिरा खाने वाला और पर-स्त्रीगामी था। वह एक दिन मदिरापान कर सोया था कि रात्रि में वह मर गया। मरने के बाद उसे प्रेत योनि मिली तब एक वृक्ष पर रहने लगा। उसी नगर में एक भिक्षुक ब्राहाण भी रहता था, वह दिन को भिक्षा मांग का लाता था। उसकी स्त्री बड़ी कृपण थी, कभी किसी को कुछ न देती थी। 

          समय पाकर ब्राहाण-ब्राहाणी दोनो ने तन त्याग किया और उसी वृक्ष पर ये दोनो भी पिशाच-पिशाचिनी बनकर रहने लगे। बहुत दिन बाद पिशाचिनी ने कहा- हे पिशाच! तुझे कुछ पिछले जन्म की भी खबर है। तब पिशाच ने कहा - मैं पहले जन्म में ब्राहाण था। पिशाचिनी ने कहा - तुमने कौन -सा ऐसा कर्म किया था जिससे पहले जन्म की बात याद है। पिशाच ने कहा - मैंने एक ब्राहाण के मुख से अध्यात्म ज्ञान को सुना है, जिससे अपने पूर्वजन्म को जानता हूं। पिशाचिनी ने कहा - वह ब्राहाण कौन था? अध्यात्म कौन कर्म है? पिशाच ने कहा - मैंने कोई शुभ कर्म नहीं किया है, केवल गीता के एक श्लोक को सुना है जो श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को सुनाया था। 

           ऐसा कह वह श्लोक अर्थ सहित पिशाचिनी को सुनाने लगा, बस श्लोक को सुनते ही एक और प्रेत उस वृक्ष से उतर पड़ा और कहा कि जो बातें तुम आपस में करते हो वे मुझ से भी कहो। ब्राहाण पिशाच ने वह श्लोक उस प्रेत को भी सुनाया। उससे तीनों प्रेतों की योनि छूट गई और विमान पर बैठ कर विष्णु लोक का गए। यही गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य है। जो इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक सुनते हैं वे सदा बैकुण्ठ में निवास करते हैं

 

इति श्रीपद्यपुराणे सती-ईश्वरसम्वादे उतराखण्ड़े नाम नवमो अध्यायः समाप्त।।  






 

 



    

अथ नौवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार - The greatness of the ninth chapter of Srimad Bhagavad Gita भगवद गीता अध्याय 9 - भागवत गीता अध्याय 9 - तथा नौवें अध्याय का पाठ सुनने से प्रेत और पिशाचनी की मुक्ति अथ नौवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता  श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार -   The greatness of the ninth chapter of Srimad Bhagavad Gita  भगवद गीता अध्याय 9 - भागवत गीता अध्याय 9  - तथा नौवें अध्याय का पाठ सुनने से प्रेत और पिशाचनी की मुक्ति Reviewed by Shiv Rana RCM on June 13, 2022 Rating: 5

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