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Bhagavad Gita Chapter 10 - Bhagwat Gita Chapter 10 - Tenth Chapter - Importance, meaning, sermon and essence of the tenth chapter of Shrimad Bhagavad Gita and liberation of Padmavati in the form of lotus and swan by listening to the tenth chapter by listening to the tenth chapter - (Shiv Rana RCM) - भगवद गीता अध्याय 10 - भागवत गीता अध्याय 10 - अथ दसवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता श्रीमद्भगवद्गीता के दसवां अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार तथा दसवां अध्याय का पाठ सुनने से कमलिनी रूपी प‌द्मावती और हंस की दसवां अध्याय सुनने से मुक्ति - (शिव राणा आरसीएम) -


Bhagavad Gita Chapter 10 - Bhagwat Gita Chapter 10 - Tenth Chapter - Importance, meaning, sermon and essence of the tenth chapter of Shrimad Bhagavad Gita and liberation of Padmavati in the form of lotus and swan by listening to the tenth chapter by listening to the tenth chapter - (Shiv Rana RCM) -

भगवद गीता अध्याय 10 - भागवत गीता अध्याय 10  -  दसवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता  श्रीमद्भगवद्गीता के दसवां  अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश सार तथा दसवां अध्याय का पाठ सुनने से कमलिनी रूपी द्मावती और हंस की दसवां अध्याय सुनने से मुक्ति - (शिव राणा आरसीएम) -

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दसवां अध्याय

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Bhagavad Gita Chapter 10 - Bhagwat Gita Chapter 10 - Tenth Chapter - Importance, meaning, sermon and essence of the tenth chapter of Shrimad Bhagavad Gita and liberation of Padmavati in the form of lotus and swan by listening to the tenth chapter by listening to the tenth chapter - (Shiv Rana RCM) -  भगवद गीता अध्याय 10 - भागवत गीता अध्याय 10  -  अथ दसवां अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता  श्रीमद्भगवद्गीता के दसवां  अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार तथा दसवां अध्याय का पाठ सुनने से कमलिनी रूपी प‌द्मावती और हंस की दसवां अध्याय सुनने से मुक्ति - (शिव राणा आरसीएम) -

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हे महाबाहो! मेरी और उत्तम उत्तम बातें सुनो। मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तेरी भलाई के लिए कहता हूँ। मेरे जन्म को देवता ऋषि कोई भी नहीं जानते हैं, क्योंकि मैं सम्पूर्ण देवता और ऋषियों का आदि हूँ। वे सब मुझसे उत्पन्न हुए हैं। जो मुझे अज, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का ईश्वर जानते हैं वे मनुष्यों में मूढ़तारहित हैं और सब पापों से छूट जाते हैं। हे अर्जुन ! बुद्धि, ज्ञान, अव्याकुलता, क्षमा, सत्य, दम, सुख-दुःख, उत्पत्ति, लय, भय और अभय, अहिंसा, ममता, संतोष शम, अपकीर्ति ये सब प्राणियों के भाव पृथक-पृथक मुझ से ही होते हैं। वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, सनकादि चारों मुनि तथा चौदहों मनु, ये सब मेरे मन से प्रगट हुए हैं। इन्हीं से सब प्रजा उत्पन्न हुई है। जो पुरुष मेरी विभूति को तत्त्व से जानते हैं, वे निश्चय योग से मुक्त होते हैं। मैं ही सब की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे ही द्वारा सबकी प्रवृत्ति होती है। यह जानकर विवेकी पुरुष मेरा स्मरण करते हैं। वे अहर्निश मेरे में ही चित्त लगाए रहते हैं और अपने प्राणों को मुझे अर्पण कर देते हैं। इस प्रकार वे स्वयं नित्य संतुष्ट आनन्द में मग्न रहते हैं और दूसरों को भी करते हैं। जो इस रीति से निरंतर मेरे ध्यान में लगे रहते हैं और प्रीतिपूर्वक भजन करते हैं उनको मैं ऐसी बुद्धि देता हूँ, कि वे मुझको प्राप्त हों। ऐसे पुरुष पर अनुग्रह करने के लिए आत्मभाव में स्थित जो मैं हूँ सो प्रकाशमान दीपक से उनके अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार को नष्ट कर देता हूँ। यह सुनकर अर्जुन ने कहा- हे श्रीकृष्ण ! आप परब्रह्म हो, परम पवित्र हो, नित्य पुरुष हो, आदिदेव हो, अज हो, विभु हो, सम्पूर्ण ऋषि देवर्षि नारद असित देवल वेदव्यास आदि आपको परमपुरुष अज और विभु कहते हैं और आप भी ऐसा ही कहते हैं।

 

हे केशव ! जो कुछ आप कहते हैं और जो कुछ ये ऋषिगण कहते हैं इन सबको मैं सत्य ही मानता हूँ। हे भगवान् ! देवता और दानव आपकी उत्पत्ति के कारण को नहीं जानते। हे पुरुषोत्तम, हे प्राणियों के ईश्वर, हे प्राणियों के नियन्ता, हे देवों के देव, हे जगत्पते ! आप ही अपने को जानते हो, आपको दूसरा कोई नहीं जानता। हे श्रीकृष्ण ! आपकी जो दिव्य विभूतियां हैं उनको मुझसे कहिए जिनके द्वारा आप इन लोगों में व्याप्त होकर स्थिर हो। हे श्रीकृष्ण ! आपका निरन्तर ध्यान करता हुआ मैं आपको किस तरह जानूं ? हे भगवान् ! आपका ध्यान किन-किन भावों में करना योग्य है ? हे जनार्दन ! आप अपनी प्राप्ति का उपाय योगेश्वर और विभूति विस्तारपूर्वक मुझे सुनाइए। इस अमृत रूपी वाणी को सुनते-सुनते मेरा मन तृप्त नहीं होता है। यह सुन श्रीकृष्ण जी बोले- हे अर्जुन ! मेरी जो दिव्य विभूतियां हैं उनमें से मुख्य मुख्य तुम्हें सुनाता हूँ, क्योंकि मेरी सम्पूर्ण विभूतियों का अन्त नहीं है। हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में मैं ही बसता हूँ। अन्तर्यामी मैं ही हूँ। उनकी उत्पत्ति, पालन, नाश करने वाला मैं हूँ। बारह सूर्यों में पौष मास का विष्णु सूर्य हूँ। मैं प्रकाशमान वस्तुओं में सूर्य, उन्चास पवनों में मारीच नाम का वायु हूँ, तारागणों में चन्द्रमा, वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र, इन्द्रियों में मन और प्राणियों में चेतना शक्ति मैं ही हूँ। रुद्रों में शंकर, यक्षराक्षसों में कुबेर, आठ वसुओं में अग्नि और पर्वतों में सुमेरु, पुरोहितों में बृहस्पति, सेनापतियों में शिव जी का पुत्र स्वामी कार्तिकेय और सरोवरों में सागर, महर्षियों में भृगु, वाणी में एक अक्षर (), यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों में हिमालय, वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं ही हूँ। घोड़ों में उच्चःश्रवा, हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा, अस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, उत्पन्न करने वालों में कामदेव, सर्पों में वासुकि, नागों में शेषनाग, जलचरों में वरुण, पितरों में अर्यमा, शासन करने वालों में यम मैं ही हूँ। दैत्यों में प्रहलाद, निगलने वालों में काल, मृगों में सिंह, पक्षियों में गरुड़, पवित्र करने वालों में पवन, शस्त्रधारियों में परशुराम, मछलियों में मगर और नदियों में गंगा, सृष्टि का आदि मध्य अवसान मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या और वादियों में सिद्धांत, अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द्व चारों ओर मुखवाला सबको उत्पन्न करने वाला सबका भरण पोषणकर्त्ता तथा सबका संहारक मैं हूँ। स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धृति, शांति और क्षमा, सामवेद के मन्त्रों में वृहत्साम, छन्दों में गायत्री छन्द, मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में बसन्त मैं हूँ। तेजस्वियों में तेज, विजय कर्ताओं में  विजयी, उद्यमियों में उद्यम और सत्य वालों में सत्य मैं हूँ। यादवों में वसुदेव, पाण्डवों में धनंजय, मुनियों में व्यास, कवियों में शुकदेव मैं हूँ। जीतने की इच्छा करने वालों में नीति, गुप्त करने वाले उपायों में मौन, तत्त्वज्ञानियों में ज्ञान मैं ही हूँ। हे हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न करने का बीज भूत कारण मैं ही हूँ। चराचर प्राणियों में ऐसा कोई भी नहीं है जिसमें मैं नहीं हूँ। हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है और कोई उनका वर्णन कर सकता है। मैं सर्वव्यापी हूँ, यह संक्षिप्त वर्णन मैंने किया है। यह संक्षेप से एक ब्रह्मांड कहा है ऐसे असंख्य हैं। यह सब जगत् मेरे तेज से उत्पन्न हुआ जान। इन सब बातों को भिन्न-भिन्न जानने से तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा। तू इतना ही जान ले कि मैंने इस संपूर्ण जगत् को अपने एक अंश से धारण कर रखा है।

 

यह श्रीमद-भागवतम, श्रीमद-भागवतम की गीता, सुपनिषद-सुपनिषद, योग विज्ञान में भगवान कृष्ण और भगवान अर्जुन के बीच बातचीत का दसवां अध्याय है।

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दसवें अध्याय का माहात्म्य

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श्री भगवान् जी बोले- हे लक्ष्मी ! यह दसवें अध्याय का माहात्म्य कहता हूँ। काशी नगर में एक धीरजी नामक धर्मात्मा हरिभक्त ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह विश्वेश्वर महादेव जी के दर्शन को गया। गर्मी की ऋतु थी वह धूप से व्याकुल हो चक्कर खाकर मन्दिर के पास गिर पड़ा। इतने में भृगो नामक गण आया उसने देखा कि ब्राह्मण मूर्छित पड़ा है। उसने जाकर शिव जी से कहा। महादेव जी सुन कर चुप हो रहे। उस गण ने फिर जाकर कहा- हे स्वामिन् ! यह चरित्र मैंने देखा है, इसने कौन सा पुण्य किया है जिससे पवित्र जगह मृत्यु पाई है, चारों बातें इसकी भली आ बनी हैं। एक काशी क्षेत्र, गंगा जी का स्नान, सन्तों तथा विश्वेश्वर कर यह बताओ कि इसने कौन-सा पुण्य किया था। तब महादेव जी ने कहा- हे भूगो ! इसके जन्म का हाल मैं कहता हूँ सो सुनो। एक दिन कैलाश पर्वत पर पार्वती और हम बैठे थे। एक हंस मेरे दर्शन को आया, वह हंस ब्रह्म का वाहन था ब्रह्मलोक में मानसरोवर को जाता था, उस सरोवर में सुन्दर कमल फूले थे। वह एक कमल को लांघने लगा, ज्यों ही उसकी परछाई पड़ी वह हंस एकदम काला हो गया और बेहोश हो आकाश से पृथ्वी पर गिरा। उसी मार्ग में एक गण आया। हंस को गिरा देखकर गण ने कहा- हे स्वामिन् ! यह आपके दर्शन को आया था सो श्याम वर्ण होकर गिर पड़ा है। गण मेरी आज्ञा से हंस को ले आया। मैंने पूछा हे हंस ! तू श्याम वर्ण क्यों हुआ ? हंस ने कहा- हे प्रभु जी ! मैं यह नहीं जानता कि मैं किस कारण से काला हो गया हूँ। यह सुन शिव जी को आकाशवाणी हुई, हे शिव जी ! कमलिनी से पूछो वह कहेगी। कमलिनी ने आकर कहा कि पिछले जन्म में मैं पद्मावती नामक अप्सरा थी। श्री गंगा जी के किनारे एक ब्राह्मण स्नान करके गीता के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था। एक दिन इन्द्र का सिंहासन हिला। इन्द्र ने मुझे आज्ञा दी तू जाकर उस ब्राह्मण की तपस्या भंग कर। मैं ब्राह्मण के पास गई। ब्राह्मण ने मुझे श्राप दिया कि हे पापिन! तू कमलिनी हो जा। ब्राह्मण के श्राप से मैं कमलिनी हो गई। अब मैं गीता के दसवें अध्याय का पाठ करती हूँ उसी से मेरा तेज है। मुझको लांघने वाला काला होकर अचेत हो जाता है। हंस ने कहा- मेरा श्याम वर्ण से श्वेत वर्ण कैसे हो और तू कमलिनी की देह से छूट देवदेही कैसे पाये ? तब कमलिनी ने कहा, यदि कोई गीता के दसवें अध्याय का पाठ सुनाये तब हमारा तुम्हारा दोनों का उद्धार होगा। फिर गीता के दसवें अध्याय का पाठ उस हंस और कमलिनी ने सुना, तब उसी समय उन दोनों का उद्धार हुआ। हंस अपने श्वेत वर्ण को प्राप्त हुआ और कमलिनी देवकन्या हुई।

यह उत्तराखंड में गीता-महात्म्य के दसवें अध्याय का समापन है, श्रीपद्म-पुराण में देवी सती और भगवान शिव के बीच बातचीत।

इति श्रीपद्मपुराणे सती-ईश्वरसंवादे उत्तराखंडे गीतामाहात्म्यनाम दशमो अध्यायः समाप्तः ॥

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