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पहला अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता - विषादयोग - Shri Madbhagvad Geeta (First Part) Vishadyog


अथ श्री गीता के ज्ञान की कथा प्रारम्भ
पहला अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता -  विषादयोग - Shri Madbhagvad Geeta 

(First Part) Vishadyog


     जब कौरव और पांडव महाभारत के युद्ध को चले, तब राजा धृतराष्ट् ने कहा कि मैं भी युद्ध का कौतुक देखने को चलूंगा तो व्यास जी ने कहा कि हे राजन्! तुम्हारे नेत्र नहीं है, नेत्रों के बिना क्या देखोगे? तब राजा धृतराष्ट् ने कहा, हे प्रभु, देखुंगा नहीं पर श्रवण तो करूंगा, तब व्यास देव जी ने कहा, हे राजन्! तेरा जो सारथी संजय है, वह मेरा शिष्य है। जो कुछ महाभारत के युद्ध की लीला कुरूक्षेत्र में होगी, संजय तुमको यहां बैठे ही श्रवण करायेगा। जब व्यास देव जी के कमल मुंह से यह वचन सुने तब संजय ने श्री व्यास देव जी के चरणों में नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर विनती की, हे प्रभु जी, महाभारत के युद्ध का चरित्र कुरूक्षेत्र में होगा और मैं हस्तिनापुर में कैसे जानूंगा तथा राजा को किस भांति कहूंगा? जब इस प्रकार संजय ने व्यास जी के आगे विनती की तो श्री व्यास देव जी ने प्रसन्न हो कर संजय से कहा कि हे संजय! मेरी कृपा से तुझे यहां सब कुछ दिखाई देगा और बुद्धि के नेत्रों से सूझेगा। जब व्यास देव जी ने यह वर दिया तो उसी समय संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई और बुद्धि भी उनकी दिव्या हुई। आगे अब महाभारत का कौतुक कहते हैं सो सुनो। 
 

    सात अक्षौहिणी सेना पांडवों की और ग्यारह अक्षौहिणी सेना धृतराष्ट् के पुत्र कौरवों की, ये ही सेनाएं इकट्ठी हो कर कुरूक्षेत्र में पहुंचीं। राजा धृतराष्ट् ने संजय से पूछा - हे संजय! धर्म का क्षेत्र जो कुरूक्षेत्र है वहां मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया, सो मुझसे कहो। राजा का वचन सुनकर संजय बोला - हे राजा! तेरे पुत्र दुर्योधन ने पांडवों की सेना को देखकर अपने गुरूदेव द्रोणाचार्य के निकट जा कर विनती की, हे आचार्य! देखो तो पांडवों की सेना का समूह और सेना की पंक्ति कैसी भली-भांति बनी है और द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न, जो तुम्हारा शिष्य है, कैसा बुद्धिमान है जिसने पांडवों की सेना की पंक्ति कैसे भली-भांति बनाई है। और जो पांडवांे की सेना के मुख्य योद्धा है उनके नाम दुर्योधन द्रोणाचार्य को सुनाता है। इस सेना में गदाधारी भीमसेन, धनुषधारी अर्जुन और राजा युयुधान, राजा विराट, राजा दु्रपद, महारथी धृष्टकेतु, चेकितान और बड़ा बलवान् काशी का राजा और पुरूजित, कुन्ती भोज, मनुष्यों शैव्य, युधामन्यु और विक्रान्त, बड़ा बलवान्, उतमौजा, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पंाचों पुत्र सभी महारथी है। अब दुर्योधन अपनी सेना के मुख्य योद्धाओं के नाम औन बल सुनाता है। हे आचार्य जी जो मेरी सेना के मुख्या योद्धा है, हे ब्राहाणों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य जी, उनके नाम सुनो। 


    प्रथम तो आप और भीष्म जी, कर्ण, कृपाचार्य जी, समितिंजय, अश्वत्थामा, विकरण और भूरिश्रवा, जयद्रथ आदि से लेकर और भी योद्धा हैं, जिन्होंने मेरे निमित अपना जीवन त्याग दिया है और जो नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले हैं, युद्ध करने में बड़े चतुर है। हमारी ग्यारह अक्षौहिणी सेना है और पांडवों की सेना सात अक्षौहिणी है। हमारी सेना के अधिकारी और रक्षाकर्ता भीष्म है और पांडवो की सेना का अधिकारी और रक्षाकर्ता भीमसेन है। अब दुर्योधन अपनी सेना से कहने लगे, जितने तुम हमारी सेना के लोग हो सो सभी भीष्म की रक्षा करने वाले हो, अब जितने शस्त्र आने के मार्ग है, उन सब मार्गो से भीष्म की रक्षा करो। दुर्योधन के मुंह से भीष्म आदि योद्धाओं ने यह वचन सुन कर उसको प्रसन्न करने के लिए कौरवों में जो बड़े वृद्ध भीष्म पितामह है, उन्होने प्रथम सिंह की तरह गरज कर अपना प्रतातवान शंख बजाया, जिसके उपरान्त दुर्याेधन की सारी सेना ने शंख बजाए। भेरी, ढोल और रण वाद्य, दमामे ओर गोमुख इत्यादि बजाए। सेना ने विभिन्न प्रकार के बाजे एक साथ बजाए, जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ। अब पांडवो की सेना ने जो बाजे बजाए उनको कहते है। प्रथम तो जिस रथ पर श्रीकृष्ण भगवान् विराजमान है, उस बड़े रथ की सारी समाग्री कंचन की है और रत्नों से जड़ित है। जैसे वर्षा ऋतु का मेघ गरजता है वैसे ही रथ के पहियो की आवाज़ है, ऐसा रथ है। अब घोड़ों की शोभा कहते है! जैसे गौ का दूध होता है वैसा उनका सुन्दर रंग है और जैसे कार्तिक का फूला हुआ कमल होता है, 


    ऐसा सुन्दर घोड़ों का मुख है और बहुत सुन्दर है गर्दन जिनकी, सुन्दर है कान जिनके, सुन्दर है पूंछ जिनकी, स्वर्ण की घुघरी की जल रेव है और चरण में स्वर्ण के नुपूर पड़े हैं। यह तो उन घोड़ों की शोभा है। ऐसे सुन्दर रथ पर सारथी भक्तवत्सल सत्य स्वरूप आनन्दकन्द श्रीकृष्ण भगवान् जी विराजमान है और योद्धा के स्थान पर अर्जुन भक्त विराजमान है। उन्होंने भी अपने-अपने दिव्य शंख बजाए। प्रथम श्रीकृष्ण भगवान् जी ने अपना पांचजन्य नामक शंख बजाया और देवदत नामक शंख अर्जुन ने बजाया और पौंड्र् नामक शंख भीमसेन ने बजाया। सो भीमसेन कैसा है, जिसका उदर बड़ा है और कमर भी बड़ी है। अनन्तविजय नामक शंख कुन्ती के पु़त्र राजा युधिष्ठिर ने बजाया। सुघोष नामक शंख नकुल ने बजाया और मणिपष्पक नामक शंख सहदेव ने बजाया। बड़े धनुष के धारण करने वाले काशी के राजा ने अपना शंख बजाया। महारथी शिखण्डी ने भी शंख बजाया और धृष्टद्युम्न ने भी बजाया और राजा विराट ने भी अपना शंख बजाया और अजित, जो किसी से जीता न जा सके, ऐसा जो सात्यकि यादव है, उसने भी बजाया, और राजा द्रुपद ने भी बजाया और द्रौपदी के पंाचों पुत्रों ने भी बजाया और जितने भी पांडवो की सेना के राजे थे, सबने शंख बजाए और महाबाहु सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु ने भी बजाया। 


    इन सब ने अपने भिन्न-भिन्न शंख बजाए। उन शंखों के शब्द को सुन कर धृतराष्ट्र् के पु़त्रों के ह्दय विदीर्ण हुए, अर्थात् ह्दय फट गए। धरती और आकाश नाद से भर गए। इसके उपरान्त धृतराष्ट्र् के पुत्र की सेना अर्जुन ने देखी, जब दोनो ओर की सेना के शस्त्र चलने लगे तब अपने धनुष का सिर उपर उठाकर पांडव अर्जुन ह्षीकेश श्रीकृष्ण भगवान् जी से बोले हे अच्युत अविनाशी पुरूष! मेरा रथ दोनांे सेनाओं के बीच में ले जाकर के खड़ा करो, तब मैं देख्ूां कि हमारे साथ युद्ध करने को कौन-कौन आए हैं। प्राणों का और धन का मोह त्याग कर जो आए है, उनको मैं देखूगा।  संजयोवाच-संजय राजा धृतराष्ट से बोला कि हे राजन्! ह्षीकेश श्रीकृष्ण भगवान् जी से अर्जुन ने जब ये वचन कहे तब भक्तवत्सल गोविन्द ने घोड़ों को हांक कर अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच भीष्म और द्रोणाचार्य के सम्मुख ले जाकर खड़ा किया। 


    भीष्ण द्रोणाचार्य की दाई बाई तरफ और भी योद्धा थे। तब श्रीकृष्ण भगवान् जी अर्जुन से बोले - हे अर्जुन! तेरा रथ मैने कौरवों की सेना के सम्मुख खड़ा किया है। इनको देख। तब अर्जुन के कौरवो की सेना में बहुत योद्धा देखे, उनमें पितामह देखे, गुरू देखे, मातुल मामा देख, पुत्र देखे, पौत्र देखे, सखा देखे, ससुर और मित्र देखे। इन दोनों सेनाओं में अपने ही कुटुम्बी देखकर अर्जुन को बहुत दया उपजी। तब अर्जुन दुःख के साथ ही श्रीकृष्ण भगवान् जी से बोले। अर्जुनोवाच-अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान् जी से कहने लगे- हे कृष्ण भगवान्! इस सेना में मैंने सब अपने भाई बन्धु कुटुम्बी ही देखे है, जो योद्धा रण में आए हैं उनको देखकर मेरा मन बहुत दुःख पाता है, मेरा मुख सूख गया है, मेरा शरीर कांप रहा है और सब शरीर में पसीना आ गया है, मेरे रोम खड़े हो गए हैं और गांडीव धनुष मेरे हाथ से गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मैं खड़ा भी नहीं हो सकता और मेरा मन भी भ्रम में पड़ गया है और हे केशव! मैं शकुन भी बुरे देखता हूं और मैं ऐसा निमित भी नहीं देखता। यह विपरीत युद्ध है। हे केशव जी! इस युद्ध में भाईयांे को मारने में मैं अपना कल्याण भी नहीं देखता। हे श्रीकृष्ण! मैं अपनी जय भी नहीं चाहता और मुझको राज्य की भी इच्छा नहीं है और न सुख की है। हे गोविन्द! ऐसा राज्य किस काम का है और राज्य के भोग किस काम के हैं, जिनके सुख के निमित कुटुम्ब के लोगों को मारकर राज मिलेगा। 


    वहां सभी कुटुम्ब के योद्धा लोग प्राण और धन के मोह को त्याग कर युद्ध के निमित खड़े हैं। सो यह कौन-कौन हैं-गुरू हैं, पितामह हैं, पुत्र हैं, तात हैं, श्वसुर हैं, पौत्र हैं, साले और सम्बन्धी हैं। हे मधुसूदन्! इनको मारने की मुझको इच्छा नहीं। इन पर मुझको बहुत दया आती है। हे धरती के धारणहारे श्रीकृष्ण भगवान् जी! मैं इनको मारकर त्रिलोक का राज्य पाउं तब भी मैं न मारूंगा, भूमि के राज्य की तो बात ही कितनी है? जनार्दन की, धृतराष्ट्र् के पुत्रों को मारने से हमारा कल्याण नहीं किन्तु इसके विपरीत होगा। इनके मारने से, हमको बड़ा पाप लगेगा। यद्यति यह महापापी भी हैं, तो भी मारने के योग्य नहीं हैं, प्रभु जी यह सभी पुजने योग्य हैं और योग्य भट हैं। मैं इनको नहीं मारूंगा। हे माधव! सज्जन भाई-बन्धु-कुटुम्ब इनको मारने से हमको सुख कहां है, मुक्ति कहां! यद्यपि राज के लोभ में इनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई है, ये धृतराष्ट्र् के पुत्र, जो कुल नष्ट करने से दोष उपजते हैं, जो कुछ मित्र के साथ कपट करने से दोष उपजते हैं इसको नहीं समझते सो क्या इनकी तरह मैं भी नहीं समझता। जो कुल के नष्ट करने से पाप लगते हैं, उन पापो को भली-भांति जानता हूं। अब जो पाप कुल के नष्ट करने से लगते हैं, उन पापों को अर्जुन भली-भांति कहते हैं। हे जनार्दन! कुल का नाश करने से कुल के जो पुराने धर्म चले आए हैं उनका भी नाश होता है। कुल धर्म के नष्ट होने से कुल की स्त्रियां दुराचारिणी हो जाती हैं। जिन स्त्रियों के वर्णसंकर संतान अर्थात् पराए पुरूष की संतान उपतजी है। अब वर्णसंकर संतान हुई तब पिंड और जल पितरों को पहुंचने से रह गया तो तिनके पितर स्वर्ग से गिर पड़ेंगे, इस कारण हे यदुवंशियों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण भगवान् जी! जिसने कुल को नष्ट किया उसने इतने पाप किए जो यह सब पाप कुल का नष्ट करने वाले के सिर पर होते है, फिर वह मनुष्य उन पापों का फल क्या पाता है, सो सुनो। 


    वह प्राणी सदा नरक भोगता है। न्यायशास्त्र में मैंने यह श्रवण किया है। अब अर्जुन पछताता है और हाथ को मल कर और फेर कर कहता है, हा हा, देखो भाई, मैंने कैसा पाप का उद्यम किया था, राज्य सुख के लोभ निमित अपने कुल का नाश करने लगा था। अब मैं अपने हाथ में शस्त्र न पकडूंगा और धृतराष्ट््र के पुत्रों के हाथ में शस्त्र होंगे और मैं उनके सम्मुख हूंगा। वह मुझको मारेंगे। इससे मेरा कल्याण होगा। संजयोवाच-संजय धृतराष्ट्र् से कहते हैं राजन! अर्जुन ने यह वचन कहा धनुष - बाण हाथ से छोड़ दिया और शोक में मग्न होकर बैठ गया।













।। इति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रहाविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे विषादयोगे नाम प्रथमोध्यायः समाप्तः।।

‘प्रदीप‘ श्रीमद् भगवद् गीता 

    

पहले अध्याय का माहात्म्य 

अगले अंक में पोस्ट किया जायेगा

 




































 

 

 

पहला अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता - विषादयोग - Shri Madbhagvad Geeta (First Part) Vishadyog पहला अध्याय - श्रीमद् भगवद् गीता -  विषादयोग - Shri Madbhagvad Geeta (First Part) Vishadyog Reviewed by Shiv Rana RCM on February 25, 2021 Rating: 5

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