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पहले अध्याय का माहात्म्य - तोते से गीता पाठ सुनने से मुक्ति

 पहले अध्याय का माहात्म्य
तोते से गीता पाठ सुनने से मुक्ति

 

एक समय कैलाश पर्वत पर महादेव जी और पार्वती की आपस मे गोष्ठी हुई। पार्वती जी ने पूछा, हे महादेव जी! आप अपने मन मे किस ज्ञान के बल से आपको संसार के लाग शिव कर पूजते है और आप के कर्म यह, दिखाई देते है, और मुंड़ो की माला पहन रहे हो, इनमे तो कोई कर्म पवित्र नही सो आप मुझे वह ज्ञान सुनाओ जिससे आप पवित्र हो। तब श्री महादेव जी ने उतर दिया श्री महादेवोवाच- महादेव जी बोले, प्रिये सुनो! जिस गीता के ज्ञान को मन मे धारण करने से पवित्र हुआ हूं, उस ज्ञान से मुझे बाहर के कर्म नही व्यापते। तब पार्वती जी ने कहा - हे भगवान् जिस ज्ञान की आप स्तुति करते है, उस ज्ञान के सुनने से कोई कृपार्थ भी हुआ है। तब श्री महादेव जी ने उतर दिया, इस ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए है और आगे भी होंगे। मै एक पुरानी कथा सुनाता हूं। तुम सुनो! एक समय पाताल लोक में शेष नाग की शैया पर श्री नारायण जी आंखे बन्द कर अपने आनन्द में मग्न थे, उस समय भगवान् के चरण दबाते हुए श्री लक्ष्मी जी ने पूछा, हे प्रभु! निद्रा और आलस्य उन पुरूषों को व्यापता है जो तामसी हैं। फिर आप तो तीनो गुणो से परे हो, श्री नारायण एवं वासुदेव हो, आप नेत्र जो बन्द किये हो, यह मुझको बड़ा आश्चर्य है। श्री नारायण जी बोले - हे लक्ष्मी जी! मुझको निद्रा-आलस्य नही व्यापता। एक शब्द रूपी जो भगवद्गीता है, उसमे जो ज्ञान है, उसके आनन्द में मग्न रहता हूं। जैसे 24 अवतार मेरे आधार रूप है, वैसे ही यह गीता शब्दरूपी अवतार है। इसके पांच अध्याय मेरे मुख है, पांच अध्याय मेरी भुजाएं है, पांच अध्याय मेरा ह्दय और मन है, सोलहवां अध्याय मेरा उदर है, सत्रहवां अध्याय मेरी जांघें है। अठारहवां अध्याय मेरा चरण है, और जितने श्लोक है सो मेरी नाड़ियां है, और जो अक्षर है, मेरे रोम है। ऐसा जो मेरा शब्दरूपी गीता ज्ञान है, उसक भाव को मैं ह्दय में विचारता हूं और बहुत आनन्द पाता हूं। तब लक्ष्मी जी कहने लगीं, हे नारायण! तब श्री गीता जी का ऐसा ज्ञान है तो उसको सुनकर कोई जीव कृतार्थ भी हुआ है? तब श्री नारायण जी ने कहा, हे लक्ष्मी! गीता ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए है सो तुम भी सुनो। श्री नारायणोवाच-शूद्र वर्ण का एक प्राणी था जो चांडालो के कर्म करता था और तेल-लवण का व्यापार करता था। उसने एक बकरी पाली। एक दिन वह बकरी चराने को जंगल मे गया और व    ृक्षों के पत्ते तोड़ने लगा। वहां सांप ने उसको डस लिया, तुरन्त ही वह मर गया। मर कर उस प्राणी ने बहुत से नरक भोगे फिर बैल की योनि पाई। उस बैल को एक भिक्षुक ने खरीद लिया। भिखारी उस बैल पर चढ़ कर सारा दिन मांगता फिरता, जो कुछ भिक्षा मांग कर लाता, वह अपने कुटुम्ब के साथा मिलकर खाता। बैल सारी रात भर द्धार पर बंधा रहता। उसके खाने-पीने की कोई खबर न लेता। कुछ थोड़ा-सा भूसा उसके आगे डाल देता। इस प्रकार कई दिन बीते तो वह बैल भूख का मारा गिर पड़ा, मरने लगा पर उसके प्राण नहीं छूटते थे। तब नगर के लोग देखते कोई तीर्थ का फल दे, कोई व्रत का फल दे, पर उस बैल के प्राण छूटते नही। एक दिन एक गणिका आई। उसने लोगों से पूछा, यह भीड़ कैसी है तो उन्होने कहा इसके प्राण नही छूटते। अनेक पुण्यों का फल दे रहे है तो भी इसकी मुक्ति नही होती। तब गणिका ने कहा, मैंने जो कर्म किया, उसका फल मैंने इस बैल के निमित कर दिया। इतना कहते ही उस बैल की मुक्ति हुई। उस बैल ने ब्राहाण के घर जन्म लिया। पिता ने उसका नाम सुशर्मा रखा। बड़ा होने पर पिता ने उसको पढ़ाया, उसको पिछले जन्म की सुध रही। उसने एक दिन मन मे सोचा कि जिस गणिका ने मुझे बैल की योनि से छुड़ाया था, उसके दर्शन करूं। विप्र चलता-चलता गणिका के घर गया और कहा, तू मुझे पहचानती है, गणिका ने कहा मैं नही जानती तुम कौन हो, क्योकि तुम विप्र, मैं वेश्या। तब विप्र ने कहा, मैं वही बैल हूं जिसको तुमन अपना पुण्य दिया था तब मेरी मुक्ति हुई थी। अब मैंने विप्र के घर जन्म लिया है। तुम अपना पुण्य बताओ। वेश्या ने कहा, मैने अपनी याद में कोई पुण्य नही किया पर मेरे घर एक तोता है, वह सुबह कुछ पढ़ता है। मैं उसके वाक्या सुनती हूं। उसी पुण्य का फल मैंने तेर निमित का दिया था। तब उस विप्र ने तोते से पूछा कि तू सवेरे क्या पढ़ता है? तोते ने कहा मैं पिछले जन्म में विप्र का पुत्र था, पिता ने मुझे गीता के पहले अध्याय का पाठ पढ़ाया था। एक दिन मैने अज्ञानवश गुरू का अपमान किया। तब गुरू जी ने मुझे श्राप दिया कि तू तोता बन जा। तब मैं तोता बना, एक फन्दक पकड़ कर ले गया, एक विप्र ने मुझे मोल ले लिया, वह विप्र भी अपने पुत्र को गीता का पाठ पढ़ाता था। तब मैने भी वह पाठ सीख लिया। एक दिन ब्राहा्रण के घर कुछ चोर आए। कुछ धन प्राप्त न हुआ, मेरा पिंजरा उठा ले गए, उन चोरो की यह गणिका मित्र थी। मुझे इसके पास ले आए सो मैं नित्य गीता जी क पहले अध्याय का पाठ करता हूं, यह सुनती है पर जो मैं पढ़ता हूं, इस गणिका की समझ में नही आता। वही पुण्य तेरे निमित कर दिया था सो श्री गीता जी के पहले अध्याय के पहले पाठ का फल है। तब विप्र ने कहा, हे तोते तू भी विप्र है। मेरे आशीर्वाद से तेरा कल्याण हो। सो हे लक्ष्मी जी, इतना कहने के तोते की मुक्ति हुई। उस गणिका ने भले कर्म ग्रहण किए, नित्यप्रति स्नान कर गीेता के पहले अध्याय का पाठ करती। इस तरह भले विप्र, क्षत्रिय, वैश्य सभी उस वेश्या की पूजा करने लगे और विप्र अपने घर को गया। श्री नारायण जी ने कहा-हे लक्ष्मी जी! जो कोई भी गीता का पाठ करे या श्रवण करे उसको भी मुक्ति मिलेगी। यह पहले अध्याय का माहात्मय मैने तुमसे कहा।

इति प्रथमो अध्याय - माहात्मय

‘प्रदीप श्रीमद् भगवद् गीता’








































 

पहले अध्याय का माहात्म्य - तोते से गीता पाठ सुनने से मुक्ति  पहले अध्याय का माहात्म्य  - तोते से गीता पाठ सुनने से मुक्ति Reviewed by Shiv Rana RCM on February 26, 2021 Rating: 5

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