अथ सातवां अध्याय- श्रीमद् भगवद् गीता
अध्याय 7 - Part-7 - Bhagavad Gita
हे अर्जुन! अपना चित मुझ में लगाकर और मेरा ही आश्रय लेकर जिस प्रकार से संशय रहित मुझ को पूर्ण रीति से जानोगे सो मैं कहता हूं। हे पार्थ! अब तुम को सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान सुनाता हूं। इसे जानकर फिर कुछ जानना नहीं रहता। हजारों मनुष्यों में कोई एक ऐसा होता है जो आत्मज्ञान जानने के लिए यत्न करता है और इन यत्न करने वालों में भी कोई - कोई ही मुझको भली - भांति जानता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये आठ प्रकार की भिन्न प्रकृति है। ये जो आठ प्रकार की प्रकृति है इन्हे अपरा प्रकृति कहते है। इससे अन्य जीव को भूत प्रकृति अथवा परा प्रकृति कहते है, इस बात को भली-भांति जानो। हे महाबाहो! इस परा प्रकृति से यह जगत् धारण किया गया है,
हे कुन्तीपुत्र! सम्पूर्ण प्राणीमात्र मेरी इन दोनो प्रकृतियों से उत्पन्न होते है। इस बात को अच्छी तरह जान कि मैं इस सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाला हूं। हे अर्जुन। जैसे धागे में मणि पिरोई जाती है, उसी तरह यह संसार मुझ में पिरोया हुआ है इसलिए मुझ से परे कुछ भी नहीं है। जलों में रस, सूर्य, चन्द्रमा में ज्योति, सब वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द और मनुष्य में पुुरूषार्थ मै हूं। पृथ्वी में पवित्र गंध, अग्नि में तेज, तपस्वियों में तप, सम्पूर्ण प्राणियों में जीवन मैं हूं, सम्पूर्ण प्राणियों का सृष्टिकर्ता मैं हूं। बुद्धिमानों में बुद्धिरूप, बलवानों में बलरूपम मैं हूं। कामरहित जो सात्विक बल है, वह मैं हूं और धर्म के अनुकूल जो वासना है वह मैं हूं। सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ये तीनों मुझ से उत्पन्न है। मैं उनके वशीभूत नहीं हूं। इन्हीं तीनों गुणों ने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है। इससे मुझे कोई नहीं जानता है। मैं इन भावों से परे हूं तथा इनका नियंता और विकार रहित हूं।
यह मेरी माया बड़ी कठिन है। जो मेरी शरण आते है। वे ही मेरी माया के पार पहुंचते है। हे अर्जुन! मेरी माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है उस ज्ञान के दूर हो जाने से वे असुर भाव को प्राप्त हो गए है, ऐसे मूढ़, पापी और नराधम मुझको नहीं पाते है। हे धनंजय! रोगी, पीड़ित आत्मज्ञान को जानने की इच्छा करने वाला, संसारी या पारलौकिक भोग भोगने वाला और ज्ञानी ये चार प्रकार के मनुष्य पहले जन्म के पुण्य उदय होने पर मुझे भेजते है। इन चार प्रकार के पुरूषों में ज्ञानी श्रेष्ठ हैं, क्योेंकि वह सदा हम में युक्त रहता हैं। इससे ज्ञानी हमको प्यारा है, और मैं ज्ञानी को बहुत प्रिय हूं। अर्जुन! बहुत जन्म तक ज्ञान संचित करता हुआ जो इस सम्पूर्ण जगत् को वासुदेव जानकर मेरा स्मरण करता रहता है, वह महात्मा दुर्लभ है।
अपनी-अपनी प्रवृति के अनुसार मनुष्य धन, जन, स्त्री, पुत्रादिक के लोभ के वशीभूत होकर उन वासनाओं के अज्ञान में डूब उन फलों की चाहना से मोहित मूढ़ प्राणी मुझको, अजन्मा, अविनाशी नहीं जानते है। मैं भूत, वर्तमान और भविष्यत् इन तीनों कालों में उत्पन्न हुए सभी प्राणियों को जानता हूं और मुझको तू ही जानता है और कोई नहीं जानता है। हे अर्जुन! इस संसार में आकार प्राणी मुग्ध हो जाते है और भोगों में फंस जाते है। इच्छा द्धेष से उत्पन्न जो फल प्राप्त करते है, उनके फल शीघ्र ही नष्ट हो जाते है और जो मेरा भजन-पूजन करते है, वे हम से मिलते है। मैं विनाश रहित सर्वोतम और परमस्वरूप हूँ । इसलिए जो बुद्धिमान मुझको किसी से प्रकट हुआ जानते और अन्य देवताओ की उपासना करते है, उनको नाशवान् फल मिलता है।
मैं योगमाया से आच्छादित हूं इसलिए सब के सामने प्रकाशित नहीं होता, केवल अपने भक्तों के ही सामने प्रत्यक्ष होता हूं और जो मेरी माया से अन्य देवताओ की पूजा करते है उन पुरूषों की श्रद्धा को मैं दृढ़ता देता हूं जिससे वे मुझे भूल जाते है। ऐसा मनुष्य उन्हीं देवताओं में श्रद्धा रख के उसकी आराधाना करता है और उन्हीं देवताओं से अपने मनोवांछित फलों को पाता है। मैं भी उनको वैसी ही प्रेरणा करता हूं परन्तु जो हमें छोड़कर अन्य देवताओ की उपासना से सुख दुःखादि से छूट अपने चित को दृढ़ कर मेरा भजन करते है, जो मेरा आश्रय लेकर जरा-मरण से छूटने का उपाय करते है, वे उस ब्रहा, सम्पूर्ण अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्माे को जानते है। जो मुझे अद्भुत जानते है, मेरे को ही अध्यात्म देव जानते है, वे युुक्तचित वाले मरने के समय भी मुझको ऐसा ही जानते है, मुझे नहीं भूलते है, इसी से परमानन्द अविनाशी पद को प्राप्त हो जाते है।
इति श्री मद् भगवद् गीता सूपनिषत्सु ब्रहाविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन-संवादे ज्ञान विज्ञानयोगे नाम सप्तमो अध्यायः।।
प्रदीप‘ श्री मद् भगवद् गीता
अथ सातवां अध्याय- श्रीमद् भगवद् गीता
अध्याय 7 - Part-7 - Bhagavad Gita
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